जीवित्पुत्रिका व्रत कथा: बच्चों की सलामती के लिए माताओं का निर्जला संकल्प, 18 सितंबर 2025 को कब और कैसे

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा: बच्चों की सलामती के लिए माताओं का निर्जला संकल्प, 18 सितंबर 2025 को कब और कैसे

व्रत का अर्थ, तिथि और आज का संदर्भ

जीवित्पुत्रिका व्रत, जिसे जिउतिया भी कहा जाता है, मातृत्व के त्याग और बच्चों की सलामती का सबसे कठोर संकल्प माना जाता है। इस बार व्रत 18 सितंबर 2025 को पड़ेगा, जब हिंदू पंचांग के मुताबिक आश्विन मास की कृष्ण पक्ष अष्टमी रहेगी। परंपरा भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई–मधेश व मिथिला इलाकों में खास तौर पर दिखती है, लेकिन आज बड़े शहरों में बसे प्रवासी परिवार भी इसे उसी श्रद्धा से निभाते हैं।

यह व्रत तीन दिनों में पूरा होता है—पहला दिन ‘नहाय-खाय’, दूसरा दिन अष्टमी का निर्जला उपवास और तीसरे दिन नवमी को पारण। उद्देश्य सीधा है: बच्चे स्वस्थ रहें, उम्र लंबी हो और जीवन में संकट न आए। कई घरों में अब यह संकल्प बेटा-बेटी दोनों के लिए समान भाव से रखा जाता है। यही बदली हुई सोच इसे आज के समय में और प्रासंगिक बनाती है।

निराहार और कभी-कभी बिना पानी के उपवास सुनने में कठोर लगता है, और है भी। फिर भी महिलाएं इसे पूरे नियम से निभाती हैं—घर की साफ-सफाई, पूजन की थाली, रक्षा-सूत्र, दीपक, और बच्चों के नाम का आह्वान। कहीं इसे “जिउतिया का धागा” कहा जाता है, कहीं माताएं सिर पर पवित्र आंचल रखकर संकल्प दोहराती हैं। यह पूरा माहौल घरेलू पूजा के साथ-साथ सामुदायिक मिलन का भी अवसर बन जाता है।

जिमूतवाहन की कथा, मुख्य विधियां और बदलती परंपराएं

जिमूतवाहन की कथा, मुख्य विधियां और बदलती परंपराएं

इस व्रत की मूल कथा जिमूतवाहन से जुड़ी है—गंधर्व वंश का राजकुमार, दयालु पिता का पुत्र। कथा कहती है कि जिमूतवाहन ने राजसी जीवन छोड़ जंगल का रास्ता लिया। वहीं उसकी मुलाकात एक नाग स्त्री से हुई, जो रो रही थी—क्योंकि नाग लोक और गरुड़ के बीच हुए समझौते के अनुसार उस दिन उसके बेटे की बली देनी थी। एक मां की बेबस पीड़ा देख जिमूतवाहन का मन पिघल गया।

कथा आगे कहती है, उन्होंने लाल वस्त्र ओढ़कर स्वयं को गरुड़ के आगे प्रस्तुत कर दिया—किसी और के बेटे की जान बचाने के लिए। जब गरुड़ ने उसे उठाया, जिमूतवाहन ने सच बता दिया—मैं नाग नहीं, एक मानव हूं, और यह बलिदान एक मां की गोद सूनी न हो, इसलिए है। दयालुता और साहस की इस मिसाल ने गरुड़ का मन बदल दिया। उसने जिमूतवाहन की जान लौटाई और वचन दिया कि अब किसी की प्राण-बलि नहीं लेगा। कुछ कथानकों में गरुड़ स्वर्ग से अमृत लाकर जिमूतवाहन की चोटें भरता है और जिन सर्पों के अस्थि-अवशेष पड़े थे, उन्हें भी पुनर्जीवित करता है।

यही कथा इस व्रत की आत्मा है—मातृत्व की चिंता, जीवन की रक्षा और करुणा का साहस। महिलाएं इसी कथा का पाठ करती हैं, बच्चों के नाम लेकर मंगल की प्रार्थना करती हैं और घर के बड़े-बुजुर्ग आशीर्वाद देते हैं।

विधियों की बात करें तो परंपरा आमतौर पर तीन चरणों में चलती है:

  1. नहाय-खाय (अष्टमी से एक दिन पहले): स्नान-स्वच्छता के बाद शुद्ध भोजन का एक समय सेवन। कई जगह सादा घर का भोजन, मौसमी साग और चावल से यह दिन पूरा किया जाता है।
  2. अष्टमी का उपवास: दिन-भर कड़ा उपवास, कई महिलाएं निर्जला रखती हैं। पूजा में दीप, धूप, रोली, अक्षत, फल-फूल और रक्षा-सूत्र शामिल होते हैं। जिमूतवाहन-गरुड़ की कथा का पाठ होता है।
  3. नवमी का पारण: परिवार और पंडित की सलाह के अनुरूप पारण किया जाता है—सूर्य को अर्घ्य, ईश्वर का स्मरण और फिर प्रसाद के साथ उपवास खोलना।

रंग-बिरंगे धागे—कहीं लाल-पीला, कहीं लाल-काला—कलाई में बांधे जाते हैं। कुछ घरों में मिट्टी या कागज पर बने प्रतीक-चित्रों के सामने दीया जलता है। बच्चों के माथे पर हल्का टीका, और माताएं उनके सिर पर हाथ रखकर रक्षा का संकल्प दोहराती हैं। गांवों में पड़ोसिनें मिलकर भजन गाती हैं, शहरों में अपार्टमेंट के कम्युनिटी हॉल में सामूहिक कथा होती है।

समय के साथ इस व्रत का स्वर बदल रहा है। पहले फोकस अक्सर “पुत्र-लाभ” पर दिखता था, अब माता-पिता अपने सभी बच्चों—बेटियों समेत—की भलाई के लिए बराबर मनोकामना करते हैं। कई परिवारों में पिता और बड़े भाई-बहन भी तैयारी में हाथ बंटाते हैं—किसी को पूजा सजा देनी है, किसी को फल-सामग्री लानी है। यह साझा भागीदारी घर में एक सकारात्मक माहौल बनाती है।

धार्मिक आचरण के साथ व्यावहारिक सावधानी भी जरूरी है। निर्जला उपवास हर किसी के लिए सुरक्षित नहीं होता। बुजुर्ग, गर्भवती महिलाएं, स्तनपान कराने वाली माताएं या जिन्हें पहले से कोई स्वास्थ्य समस्या है, वे परिवार के बड़े या डॉक्टर की सलाह लेकर नियमों में अपनी सुविधा के मुताबिक बदलाव करती हैं—जैसे फलों का रस, नारियल पानी या हल्का आहार। उद्देश्य भाव है, शरीर पर ज़ोर डालना नहीं।

कुछ सरल सावधानियां मदद करती हैं:

  • व्रत से एक दिन पहले पर्याप्त पानी पिएं और हल्का, पौष्टिक भोजन लें।
  • पूजा के दौरान लगातार खड़े रहने या धूप-गर्मी से बचें; बीच-बीच में आराम करें।
  • ब्लड शुगर या ब्लड प्रेशर की समस्या है तो परिवार को पहले से बता दें और आवश्यकता हो तो उपवास में छूट लें।
  • पारण के वक्त जल्दबाजी न करें—पहले पानी, फिर हल्का प्रसाद, फिर सामान्य भोजन की तरफ लौटें।

सांस्कृतिक पक्ष भी दिलचस्प है। बाजारों में रक्षा-सूत्र, पूजन सामग्री, सुपारी-कलश, कथा-पुस्तिकाएं और पूजन थालियां खूब बिकती हैं। सोशल मीडिया और मोबाइल ऐप पर अब क्षेत्रीय भाषाओं में कथा-पाठ और भजन उपलब्ध हैं, जिससे परंपरा नई पीढ़ी तक आसानी से पहुंच रही है। गांवों में सामूहिक कथा के बाद प्रसाद का आदान-प्रदान होता है, शहरों में व्हाट्सऐप ग्रुप पर तस्वीरें और शुभकामनाएं।

धार्मिक अध्ययन करने वाले इसे “नैरेटिव ऑफ सैक्रिफाइस” यानी त्याग की कथा के रूप में समझाते हैं—जहां नायक किसी स्वार्थ के बिना किसी और की रक्षा के लिए खड़ा होता है। यही भाव मातृत्व की दुनिया में सहज रूप से उतरता है। बच्चे बीमार पड़ें तो मां रात भर जगती है, स्कूल की टेंशन हो तो साथ बैठ कर पढ़ाती है—व्रत उसी के प्रतीक-रूप में देखा जाता है।

कई इलाकों में जिउतिया के लोकगीत भी हैं—जिनमें जिमूतवाहन, गरुड़ और नाग माता के प्रसंग आते हैं। महिलाएं अपनी बोली में गीत गाती हैं—कहीं मैथिली, कहीं भोजपुरी, कहीं मगही। इन गीतों की धुनें पीढ़ियों के साथ चली आई हैं और घर की छोटी लड़कियां इन्हें सुनकर परंपरा से जुड़ती हैं।

धार्मिकता के साथ पर्यावरण का ख्याल भी जुड़ रहा है—लोग प्लास्टिक सजा-सामान की जगह मिट्टी के दीये, कपड़े के फूल और धातु की पुन: प्रयोज्य थाली अपनाने लगे हैं। प्रसाद और फूलों का निपटान साफ-सुथरे तरीके से किया जाता है। यह छोटा सा बदलाव भी त्योहार को ज्यादा जिम्मेदार बनाता है।

2025 की अष्टमी पर, जब घर-घर में दीपक जलेगा और माताएं संकल्प लेंगी, तो उस संकल्प के पीछे वही पुराना संदेश छिपा रहेगा—दूसरे के जीवन की कीमत समझना, अपने बच्चों के लिए सुरक्षित कल बनाना और मिलकर भलाई का रास्ता चुनना। यही कारण है कि जीवित्पुत्रिका सिर्फ एक धार्मिक तिथि नहीं, बल्कि रिश्तों और जिम्मेदारियों का जीवंत पाठ भी है।